प्रकाशकीय
हिन्दी साहित्य में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का नाम इतिहास प्रसिद्ध और अमर विभूतियों में गिना जाता है । राहुल जी की जन्मतिथि 9 अप्रैल, 1893 ई० और मृत्युतिथि 14 अप्रैल । 1963 ई० है । राहुल जी का बचपन का नाम केदारनाथ पाण्डे था । बौद्ध दर्शन से इतना प्रभावित हुए कि स्वयं बौद्ध हो गये । राहुल नाम तो बाद में पड़ा बौद्ध हो जाने के बाद । सांकत्य गोत्रीय होने के कारण उन्हें राहुल सांकृत्यायन कहा जाने लगा । राहुल जी का समूचा जीवन घुमक्कड़ी का था । भिन्न भिन्न भाषा साहित्य एवं प्राचीन संस्कृत पालि प्राकृत अपभ्रंश आदि भाषाओं का अनवरत अध्ययन मनन करने का अपूर्व वैशिष्ट्य उनमें था । प्राचीन और नवीन साहित्य दृष्टि की जितनी पकड़ और गहरी पैठ राहुल जी की थी ऐसा योग कम ही देखने को मिलता है । घुमक्कड़ जीवन के मूल में अध्ययन की प्रवृत्ति ही सर्वोपरि रही । राहुल जी के साहित्यिक जीवन की शुरुआत सन् 1927 ई० में होती है । वास्तविकता यह है कि जिस प्रकार उनके पाँव नहीं रुके, उसी प्रकार उनकी लेखनी भी निरन्तर चलती रही । विभिन्न विषयों पर उन्होंने 150 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है । अब तक उनक 130 से भी अधिक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं । लेखों, निबन्धों एवं भाषणों की गणना एक मुश्किल काम है ।
राहुल जी के साहित्य के विविध पक्षों को देखने से ज्ञात होता है कि उनकी पैठ न केवल प्राचीन नवीन भारतीय साहित्य में थी, अपितु तिब्बती, सिंहली, अंग्रेजी, चीनी, रूसी, जापानी आदि भाषाओं की जानकारी करते हुए तत्तत् साहित्य को भी उन्होंने मथ डाला । राहुल जी जब जिसके सम्पर्क में गये, उसकी पूरी जानकारी हासिल की । जब वे साम्यवाद के क्षेत्र में गये, तो कार्ल मार्क्स, लेनिन, स्तालिन आदि के राजनीतिक दर्शन की पूरी जानकारी प्राप्त की । यही कारण है कि उनके साहित्य में जनता, जनता का राज्य और मेहनतकश मजदूरों का स्वर प्रबल और प्रधान है ।
राहुल जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न विचारक हैं । धर्म, दर्शन, लोकसाहित्य, यात्रासाहित्य, इतिहास, राजनीति, जीवनी, कोश, प्राचीन तालपोथियों का सम्पादन आदि विविध क्षेत्रों में स्तुत्य कार्य किया है । राहुल जी ने प्राचीन खण्डहरों से गणतंत्रीय प्रणाली की खोज की । सिंह सेनापति जैसी कुछ कृतियों में उनकी यह अन्वेषी वृत्ति देखी जा सकती है । उनकी रचनाओं में प्राचीन के प्रति आस्था, इतिहास के प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई दृष्टि का समन्वय देखने को मिलता है । यह केवल राहुल जी थे जिन्होंने प्रचीन और वर्तमान भारतीय साहित्य चिन्तन को समग्रत आत्मसात् कर हमें मौलिक इष्टि देने का निरन्तर प्रयास किया है । चाहे साम्यवादी साहित्य हो या बौद्ध दर्शन, इतिहास सम्मत उपन्यास हो या वोल्गा से गंगा की कहानियाँ हर जगह राहुल जी की चिन्तक वृत्ति और अन्वेषी सूक्ष्म दृष्टि का प्रमाण मिलता जाता है । उनके उपन्यासे और कहानियाँ बिल्कुल नये दृष्टिकोण को हमारे सामने रखते हैं ।
समग्रत यह कहा जा सकता है कि राहुल जी न केवल हिन्दी साहित्य अपितु समूचे भारतीय वाड्मय के एक ऐसे महारथी हैं जिन्होंने प्राचीन और नवीन, पौर्वात्य एवं पाश्चात्य, दर्शन एवं राजनीति और जीवन के उन अछूते तथ्यों पर प्रकाश डाला है जिन पर साधारणत लोगों की दृष्टि नहीं गयी थी । सर्वहारा के प्रति विशेष मोह होने के कारण अपनी साम्यवादी कृतियों में किसानों, मजदूरों और मेहनतकश लोगों की बराबर हिमायत करते दीखते हैं ।
विषय के अनुसार राहुल जी की भाषा शैली अपना स्वरूप निर्धारित करती है । उन्होंने सामान्यत सीधी सादी सरल शैली का ही सहारा लिया है जिससे उनका सम्पूर्ण साहित्य विशेषकर कथा साहित्य साधारण पाठकों के लिए भी पठनीय और सुबोध है ।
कनैला वस्तुत राहुल जी का पितृग्राम है और कनैला की कथा उसका ऐतिहासिक भौगोलिक चित्रफलक । ईसापूर्व 13 वी शताब्दी में कनैला की स्थिति के बारे में एकदम सन्नाटा है उस जगह पर क्या कुछ था, कहा नही जा सकता । बाद के युग में शिशपा या सिसवा नगर की चर्चा की गई है । जिस समय (ईसापूर्व सातवी सदी) की हम बात कर रहे है, उस समय की भी धरोहर सिसवा और कनैला की भूमि में जरूर छिपी हुई है । वह सामने आती, तो अपनी मूक भाषा में बहुत सी बातें बतलाती । राहुल जी ने कालानुक्रम से कनैला और उसके नगर सिसवा की ऐतिहासिक धरोहर को लघु वृत्तान्तों के माध्यम से स्पष्ट किया है । कनैला की युगानुरूप संस्कृति सभ्यता, आजीविका रहन सहन आदि का यथातथ्य निरूपण इतिहास सम्मत है और स्वतंत्र भारत के बुद्धिजीवियों के लिए अध्ययन की बुनियाद कहा जा सकता है । 13वी शताब्दी तक सम्पूर्ण देश पर मुसलमानों का आधिपत्य हो जाता है, कनैला ग्राम भी इससे अछूता नही चु । मुगलों के काल मे उस क्षेत्र की सामाजिक स्थिति का बोध सैयद बाबा नामक लघु वृत्तान्त से कराया गया है । देश की आज़ादी के लिए हुए 1875 के संग्राम और आज़ादी मिलने पर कनैला के परम्परागत रीति रिवाज़ों और लोकतांत्रिक चेतना का हुहु प्रस्तुत पुस्तक में मैजूद है । दरसल कनैला की कथा के माध्यम से लेखक ने भारत के पूर्व ऐतिहासिक काल और कालानुक्रम से होने. वाले सामाजिक रूपान्तरों का लेखा जोखा प्रस्तुत किया है । आशा है, प्रस्तुत पुस्तक विद्वानों और जिज्ञासुओं में पहले की ही तरह समादृत होगी ।
प्राक्कथन
कनैला मेरा पितृग्राम है । मैं ननिहाल (पन्दहा) में पैदा हुआ और वहीं पला पढ़ा भी, इसलिए जन्मग्राम वही है । हर गाँव की आपबीती रोचक कथाएँ होती हैं जिनको बाल्य कल्पना और भी मोहक बना देती है । हो सकता है, मेरे लिए भी कनैला की कथाएँ आकर्षक मालूम हुई हों । पर, सत्य कल्पना से भी अधिक सुन्दर होता है । कनैला की धरती जिस भाषा में परिचय दे रही थी, उस समय उससे मैं परिचित नहीं था । जब परिचित हुआ, तो कुछ घंटों के लिए । सिर्फ दो बार 1943 और 1957 में चहाँ जा पाया ।
13 फरवरी, 1957 को उसकी पुरातत्वीय सामग्री देखने के लिए विशेष तौर से कनैला गया था और उसके बारे में मैंने निम्न पंक्तियाँ लिखीं अपने जन्मग्राम से पितृग्राम जाते समय न जाने कितनी बार इस रास्ते (डीहा कनैला) को अपने पैरों से नापा होगा । पर, उस समय रास्ता खेतों के किनारे पगडण्डी का था । अब अच्छी कच्ची सड़क बनी हुई थी । नई पक्की सड़क के चौरस्ते पर पहुँचने से पहले ही हम कनैला में दाखिल हुए । गाँव के कोने पर देखा, बहुत से लोग अगवानी के लिए तैयार हैं । लेकिन, पहले मुझे कनैला की उस पोखरी (बड़ी) को देखना था जिसमें सिसवा जैसी ईंटें मिलती हैं । बरसात के बाद का समय था । बड़ी में अभी भी थोड़ा पानी था और जहाँ से ईंटें खोदी गई थीं, वह जगह पट गई थी । लोगों ने बतलाया, इस स्थान से उस स्थान तक बड़ी ईटों की मोटी दीवार चली गई है जो उस स्थान पर जाकर समकोण पर मुड़ जाती है । चारों ओर खुदाई हो तो पता लगे कि पोखरी कितनी बड़ी थी, उसका मूल घाट किधर था । हो सकता है, पोखरी के भीतर फेंके हुए कुछ और भी पुरातत्व अवशेष मिल जाएँ । वहाँ से सैयदबाबा और डिहबाबा के स्थान पर गये । सैयदबाबा के पास कुछ देखने के लिए नहीं था । वही कुछ गज लम्बा चौड़ा ऊँचा स्थान था जिसे लोग कोट कहा करते हैं । पास में डिहबाबा का स्थान अवश्य महत्त्व रखता है । पिछली बार मैंने वहाँ महाकाल की खण्डित मूर्ति देखी थी । सौभाग्य से अब भी उसके दो टुकडे (सिर और पैरं) वहाँ मौजूद थे । कन्धे और बीच का खण्ड लुप्त था । सिर 3 इंच लम्बा है । 21 इंच की रही हो, यह जरूरी नहीं, क्योंकि महाकाल की मूर्तियों की तरह इस मूर्ति के दोनों. भी काफी फासले पर छितराए हुए हैं । सिर को वहाँ छोड़ना सुरक्षित नहीं था, इसलिए उसे साथ ले आया । महाकाल के मुख को देखकर तिब्बत के चित्र और मूर्तियाँ याद आती थीं । उसी तरह की सारी साज सज्जा थी । मुँह के दोनों छोरों पर शायद दो दाँत भी निकले हुए थे जो अब तोड़ दिये गये । नाक का टूटना बतला रहा था कि इसको मुस्लिम धर्मान्धों का सामना करना पड़ा था । दाहिने कान का आधा लिये हुए छी के नीचे का सारा भाग साफ था । बायें कान का भी कुछ हिस्सा बचा हुआ था । सिर पर अर्ध मुकुट बना हुआ है । महाकाल दाहिनी आँख से काने हो गए हैं, पर बायीं आँख का तेज अब भी झलकता है । मुकुट के नीचे केशों की पाँती के बाद मुकुट के ऊपर भी अग्निज्वाला की तरह प्रज्जलित कुंचित केशकलाप दीख पड़ते है जो मुकुट से 3 इंच ऊपर तक चले गये है । ठीक इसी तरह ज्वालमालाकुल महाकाल तिब्बत में आज भी बनाये जाते हैं । वज्रयान का यह महान् देवता कनैला में आज से आठ नौ शताब्दियों पहले परमपूज्य माना जाता था, पर आज मेरे सिवाय उसे कोई पहिचानने वाला भी नहीं है । कितना परिवर्तन? पुरुषों और उनसे भी अधिक लड़कों की भीड़ हमारे साथ थी जो खडी फसल को रौंदती चल रही थी । गया रावत (भर) का टोला मौजूद था, लेकिन एक एक मिनट के मोह ने पैरों को उधर जाने से रोक दिया । गया रावत के पुत्र आज दो बार से इस गाँव के प्रधान निर्वाचित हो रहे हैं । ग्राम में जाकर ग्रामीणों से न मिलना अफसोस की बात थी, पर हर चीज का याद रखना मुश्किल था । श्यामलाल, रामधारी ही नहीं, सारा गाँव दरवाजे पर स्वागत के लिए उपस्थित था । भोजन प्रतीक्षा कर रहा था, इसलिए कुछ बोलने से पहले हमारी मण्डली भोजन करने के लिए घर में चली गई । रोटी, दाल, भाजी, भात, दूध सभी व्यंजन तैयार थे । हरी मटर का गादा (निमोना) मेरे लिए विशेष आकर्षक था । मैं सबेरे चाय पीने के साथ ही इन्सुलिन ले लिया करता था जिससे दिन भर छुट्टी रहती थी । यह देखकर प्रसन्नता हुई कि कम से कम भोजन में वहाँ सब एक वर्ण हैं । श्रीवास्तव ब्राह्मण, सर्वरिया ब्राह्मण सभी आसन से आसन मिलाये भोजन कर रहे थे ।
भोजनोपरान्त प्रतीक्षा करते बन्धुओं के बीच कुछ बोलना पड़ा । गाँव के सबसे वृद्ध नौमी कहार मौजूद थे जो अब अस्सी के ऊपर के है । नौबत राउत दूसरे वृद्ध थे । तीसरे रजबली चूड़िहार तो मेरे साथ ही साथ घूम रहे थे । मुझे प्रसन्नता थी कि उन्हें देखते ही पहचान गया । उनके सामने लाभ की एक ही बात मैं कह सकता था । वह थी बिखरे हुए खेतों को इकट्ठा करके साझे की खेती करो । मैंने कहा सारे गाँव की एक जगह खेती करने की जरूरत नहीं है । पहले गाँव की चार पाँच साझी खेतियाँ होनी चाहिए और पिछले सौ वर्ष के बंटे हुए खेतों को इकट्ठा कर देना चाहिए । पंचायती खेती की बात मैं उन्हें समझाना चाहता था, लेकिन मुझे स्वयं विश्वास नहीं था कि मेरे शब्द बहरे कानों में नहीं पड़ रहे है । पर, अगले दिन गाँव की बारात में आजमगढ़ आये कनैला के बहुत से लोग मिलने आये । जब गाँव के सबसे ज्यादा खेत वाले पुरुष ने बड़ी गम्भीरता से कहा एक बार आप और कुछ समय के लिए आ जायें, तो हमारे यहॉ जरूर पंचायती खेती हो जायेगी । इस पर मुझे विश्वास हुआ कि मेरा कहना सामयिक था और नई उठ खड़ी कठिनाइयों के कारण लोग इस तरह सोचने के लिए तैयार हैं ।
विश्वनाथ पाण्डे का ही आग्रह नहीं था, बल्कि मुझे भी दौलताबाद अपनी ओर खींच रहा था । नाम मुस्लिम तथा अर्वाचीन था । लेकिन, उसके कारण गाँव अर्वाचीन नहीं हो सकता था । गौतम अभिमन्यू सिंह मेहनगर राज्य के संस्थापक का नाम मुसलमान होने पर दौलतखाँ पड़ा, जो इस गाँव के नाम से चिपका है । पर, गाँव उससे कहीं अधिक पुराना है । विश्वनाथ पाण्डे रामराज्य परिषद् की तरफ से विधान सभा के लिए खड़े हुए थे । लेखा जोखा लगाकर पूरे विश्वास के साथ ऊह रहे थे, मैं जरूर जीतूँगा । मैंने कहा दों हजार रुपया तुम खर्च कर चुके हो । दों तीन हजार और जाएँगे और तुम्हारा हारना निश्चित है । विश्वनाथ जी बोले चचा, आशीर्वाद दीजिये । मैं जरूर जीतूँगा । 10 मार्च के अखबार में देखा, उनके निर्वाचन क्षेत्र से कम्युनिस्ट चन्द्रजीत को 21774 वोट मिले । कांग्रेसी पद्ममनाथ वकील को 19554 और विश्वनाथ जी मुश्किल से 4816 बोट पाकर अपनी जमानत जप्त करवाने में सफल हुए । कनैला छोड़ने से पहले अपनी प्रथम परिणीता के देखने का निश्चय कर चुका था । अब वह चारपाई पकड़े थी । देखकर करुणा उभर आना स्वाभाविक था । आखिर मैं ही कारण था जो इस महिला का आधा शताब्दी का जीवन नीरस और दुर्भर हो गया । मैं प्रायश्चित करके भी उनको क्या लाभ पहुँचा सकता था? एक बार देखा । वह अपने आँसुओं को रोक नहीं सकीं । फिर मैं घर से बाहर चला आया ।
विषय सूची
1
त्रिवेणी १३०० ई० पू०
2
काशीग्राम ७०० ई० पू०
10
3
बड़ी रानी २५० ई० पू०
19
4
देवपुत्र १०० ई० पू०
30
5
कलाकार ४३० ई०
44
6
सैयद बाबा १२१० ई०
56
7
नरमेध १५५० ई०
69
8
सन् ५७ १८५७ई०
78
9
स्वराज्य १९५७ ई०
89
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