हम कैसे रहें?: How Should We Live?

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Item Code: GPA185
Author: पं. श्रीलाल बिहारीजी मिश्र: (Pt. Shri Lalbihariji Mishra)
Publisher: Gita Press, Gorakhpur
Language: Hindi
Edition: 2013
Pages: 96
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 80 gm
Book Description

निवेदन

संसारमें रहनेकी भी एक कला है । इस कलाको जो समझनेका प्रयास करता है और इसके अनुसार रहता है, वह कल्याणका भागी होता है । मनुष्यजीवनका एक ही लक्ष्य है और वह है अपना कल्याण करना अर्थात् भगवत्प्राप्ति करना अथवा जन्ममरणके बन्धनसे मुक्त होना । अत:  जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त हमें किस प्रकार रहना चाहिये, जिससे हम अपने लक्ष्यकी पूर्ति कर सकें, इसपर अपने शास्त्रों तथा ऋषिमहर्षियोंने अत्यन्त गम्भीर विचार किया है और संसारके जीवोंको रहनेकी कलाका मार्गदर्शन भी दिया है ।

संसारमें विषमता पूर्णरूपसे दिखायी पड़ती है । कोई धनी है, कोई गरीब है; कोई सुरूप है, कोई कुरूप है; कोई सम्पन्न है कोई विपन्न है; कोई सात्त्विक भावापन्न है और कोई तामसी भावापन्न ।

इसी प्रकार परिवारमें भी वैभिन्न्य दिखता है । एक स्त्री किसीकी पुत्री है, किसीकी बहन है किसीकी पत्नी है किसीकी सास है, किसीकी बहू है, किसीकी माता है, किसीकी पितामही (दादी) है और किसीकी मातामही (नानी) । इसी प्रकार पुरुषके भी कई रूप हैं । व्यवहारजगत्में इन रूपोंके अनुसार ही उनके भिन्नभिन्न कर्तव्य भी हैं ।

इसी तरह पड़ोसमें, समाजमें भिन्नभिन्न स्वभावके लोग होते हैं । कोई दयालु, कोई कूर; कोई क्रोधी, कोई क्षमावान्; कोई लोभी, कोई निर्लोभी, कोई दानी, कोई कंजूस, कोई विद्वान्, कोई मूर्ख तथा कोई त्यागी और कोई भोगी । इस प्रकारका विषमभाव समाजमें, पड़ोसमें होना स्वाभाविक है ।

इस विषमभावमें समभावका दर्शन ही कल्याणकारी साधन है जिसे हमारे पुराण और इतिहास प्राचीन कथाओंके माध्यमसे समझाते हैं । समाज और परिवारके वैविध्यमें व्यवहारकी कुशलता ही योगसाधन है । इसीलिये भगवान्ने स्वयं श्रीमद्भगवद्गीतामें कहा'योग:  कर्मसु कौशलम्' ( २ । ५०) । चूकि समता ही योग है' समत्वं योग उच्यते' ( २ । ४८) और योग ही कर्मों (व्यवहार जगत्) में कौशल है । तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण जगत्को भगवद्रूप' वासुदेव:  सर्वम्' मानकर तथा ईर्ष्या और द्वेषसे रहित होकर सबमें प्रेम कैसे हो यह एक आध्यात्मिक कला है और यही समदर्शन भी है । अर्थात् सुख दुःख, अनुकूलप्रतिकूल सभी परिस्थितियोंमें समभाव होना तथा रागद्वेषसे रहित होकर सबको भगवद्रूप मानकर सबसे प्रेम करना । इसीका नाम समता है ।

इसी दृष्टिसे प्रस्तुत पुस्तकमें लेखक महोदयने आर्ष ग्रन्थोंकी कुछ कथाओंका संकलन प्रस्तुत किया है, जिससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि हम परिवारमें, पड़ोसमें, समाजमें और संसारमें कैसे रहें, ताकि जीवन सार्थक बन सके ।

आशा है पाठकगण इससे लाभान्वित होंगे ।

 

विषयसूची

 

विश्व में कैसे रहेंसमदर्शन करें

 

1

सरस और सुगम साधन समदर्शन

7

2

समदर्शनके आदर्श

 
 

(क) समदर्शी धर्मतुलाधार

16

 

(ख) समदर्शी नामदेव

17

 

(ग) दण्डवत् स्वामी परिवारमें कैसे रहें

19

1

पुत्र के लिये मातापिताकी सेवासबसे श्रेष्ठ साधन

 
 

(क) आदर्श पुत्र सुकर्मा

21

 

(ख) आदर्श पुत्र महात्मा मूक चाण्डाल

28

2

मातापिताकी उपेक्षा न करें

 
 

कौशिक ब्राह्मणकी कथा

31

3

पत्नी का अनुरागमूलक साधनपतिसेवा

 
 

शैव्याकी कथा

36

4

पति के लिये पत्नी भी तीर्थ

 
 

(क) कृकल वैश्यकी कथा

44

 

(ख) आदर्श पति मधुच्छन्दा

48

5

पिता का वात्सल्यभरा कर्तव्य

 
 

(क) राजा अश्वतरका आख्यान

50

 

(ख) आधुनिक आख्यान

53

6

बड़े भाईका आदर्श

 
 

महाराज खनित्र

54

7

छोटे भाई का आदर्श

 
 

भरतलालजी

56

8

माताका आदर्श

 
 

सुमित्रा

61

9

सासका आदर्श

 
 

कौसल्या

64

10

आदर्श बहू सीता

65

 

पड़ोसमें कैसे रहें

 
 

संत तुकाराम

66

 

समाजमें कैसे रहें

 
 

(क) आदर्श मित्र मणिकुण्डलकी कथा

68

 

(ख) आदर्श शिष्य दीपककी कथा

73

 

(ग) आदर्श शिष्य उत्तककी कथा

76

 

(घ) आदर्श गुरु महर्षि ऋभुकी कथा

85

 

सबसे प्रेम करें

 
 

(क) प्रेमविभोर एक बालिकाकी कथा

89

 

(ख) महाराज रन्तिदेवकी कथा

92

 

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